श्यामा प्रसाद मुखर्जी का सपना था- एक देश में दो विधान, दो प्रधान, दो निशान नही चलेगा
AJ डेस्क: 11 जून को जब अटल बिहारी बाजपेयी के एम्स में भर्ती होने की खबर आई तो एकबारगी लगा कि क्या वो चले जाएंगे? जून का ये वही महीना जब 23 जून को 1953 में श्याम प्रसाद मुखर्जी अटलजी के साथ कश्मीर गए थे, परमिट सिस्टम का विरोध करने और बॉर्डर से ही अटलजी को वापस भेज दिया था, एक खास सन्देश लेकर, आज मुखर्जी की पुण्य तिथि पर जानिये वो घटना जिसने अटलजी को पूरी तरह से राजनीती में आने को मजबूर कर दिया।
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श्यामा प्रसाद मुखर्जी ने जब हिंदू महासभा से विमुख होकर जनसंघ की स्थापना की, तो 1952 दिसम्बर में इसका पहला अधिवेशन कानपुर में हुआ। निशाने पर शुरू से ही कश्मीर था. नारा दिया गया- एक देश में दो विधान, दो प्रधान, दो निशान नहीं चलेंगे, नहीं चलेंगे। कानपुर अधिवेशन इसी संकल्प के साथ शुरू किया गया कि कश्मीर के पूर्ण एकीकरण को देशव्यापी मुद्दा बनाया जाए। उससे पहले अटलजी को साथ लेकर पूरे देश में श्यामा प्रसाद मुखर्जी दौरा भी कर चुके थे, ऐसे ही एक दौरे के दौरान दोनों से एल के आडवाणी कोटा स्टेशन पर मिले थे। उन दिनों आडवाणी कोटा में ही थे।
जम्मू कश्मीर सरकार ने एक नियम बना दिया था कि जो को भी जम्मू कश्मीर में भारत से आएगा, उसे वहां आने के लिए राज्य सरकार से परमिट लेना पड़ेगा। श्यामा प्रसाद मुखर्जी को ये बात काफी नागवार गुजरी और उन्होंने बिना परमिट कश्मीर में जाने की योजना बनाई। डा. मुखर्जी कई साथियों के साथ, कश्मीर के लिए 8 मई 1953 को एक पैसेंजर ट्रेन से निकले, रेल से उन्होंने पहले पंजाब पार किया। पूरा पंजाब मुखर्जी को देखने के लिए उमड़ा जा रहा था। उनका अंतिम पड़ाव राव नदी के किनारे माधोपुर चैकपोस्ट थी। रावी नदी जम्मू कश्मीर और पंजाब के बीच सीमा रेखा के तौर पर थी।
रावी नदी पर जो पुल था, उसका बीच का स्थान दोनों राज्यों के बीच की सीमा मानी जाती थी। जब जीप मुखर्जी और उनके साथियों को लेकर पुल के बीचोंबीच पहुंची तो वहां जम्मू कश्मीर के पुलिस अधिकारी एक बड़े दस्ते के साथ खड़े हुए थे। उन्होंने मुखर्जी को मुख्य सचिव का एक लैटर दिखाया, जिसके मुताबिक मुखर्जी के लिए राज्य में प्रवेश की मनाही की बात लिखी थी। डा. मुखर्जी ने उस आदेश को मानने से साफ इनकार कर दिया और ऐलान किया कि वो कश्मीर जाने के लिए दृढ प्रतिज्ञ है, अपने देश के अंदर किसी भी स्थान पर जाने के लिए मुझे किसी भी इजाजत की जरुरत नहीं।
तत्काल पुलिस अधीक्षक ने पब्लिक सेफ्टी एक्ट के तहत उनकी गिरफ्तारी का ऑर्डर निकाला। मुखर्जी को हिरासत मे ले लिया गया, उनके दो सहयोगी वैद्य गुरुदत्त और टेकचंद दोनों को गिरफ्तार कर लिया गया। चूंकि अटल बिहारी बाजपेयी इस यात्रा पर बतौर पत्रकार साथ थे, इसलिए वो गिरफ्तारी से बच गए। लेकिन उनसे श्यामा प्रसाद मुखर्जी ने उनसे कहा, ‘तुम वापस जाओ और देशवासियों को बताओ कि डा. मुखर्जी ने प्रतिबंध आदेशों की अवहेलना करते हुए जम्मू एंव कश्मीर में प्रवेश किया है और वह भी बगैर परमिट के, भले ही एक बंदी के रुप में क्यों ना हो’।
डा. मुखर्जी को श्रीनगर से दूर निशात बाग के निकट एक छोटे से घर को अस्थाई जेल बनाकर नजरबंद कर दिया गया। 23 जून को देश को फिर उनकी मौत की ही जानकारी मिली कि कैसे उनको अचानक 10 मील दूर एक हॉस्पिटल मे भी ले जाया गया, लेकिन उनकी जान नहीं बच पाई। आज तक देश सच्चाई का सही पता नहीं लगा पाया है।
जबकि अटल मुखर्जी की बात मानकर उस वक्त वापस लौट गए थे, लेकिन उनको उन्होंने पंजाब में मुखर्जी का शानदार स्वागत देखा था। ऐसे में जब मुखर्जी की मौत की खबर आई तो उनको लगा कि उनको भी चुनावी राजनीति में उतरना चाहिए। अटल बिहारी बाजपेयी ने एक इंटरव्यू में बताया कि तभी मैंने तय कर लिया कि डा. मुखर्जी के सपनों को, अधूरे कामों को पूरा करना है। हालाँकि एक बार दीन दयाल उपाध्याय मध्यावधि चुनाव में उन्हें लखनऊ से खड़ा कर चुके थे। मुख़र्जी की मौत के बाद बाद वो 1957 में तीन जगह से चुनाव लड़े, लखनऊ, मथुरा में हार गए लेकिन बलराम पुर से जीतकर संसद में आए।
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