तवायफ के आंगन की मिट्टी, चक्षुदान और रथ यात्रा की परंपरा समाप्त हो गयी प्रतिमा निर्माण में

  • अब तवायफ के आंगन की मिटटी से नहीं बनती माँ की मूरत
  • रथ यात्रा से नहीं शुरू होता प्रतिमा का निर्माण कार्य
  • महालया पर चक्षुदान की परम्परा भी निभाना मुश्किल

 

 

AJ डेस्क: कहते है बदलाव ही सृष्टि का नियम है। लेकिन अब ये बदलाव हमारी परम्पराओ पर भी दिखने लगा है। इस बदलाव से प्रभावित होकर हमारी आदिकाल से चली आ रही रीति-रिवाज भी बदलती जा रही है। कुछ ऐसा ही बदलाव माँ आदिशक्ति की प्रतिमाओं के निर्माण कार्य में देखा जा रहा है। समय के साथ आखिर क्या कुछ बदलवा आया प्रतिमा के निर्माण कार्य में ये सब कुछ हम अपने इस रिपोर्ट के जरिये आपको बताते है।

 

 

 

 

शरतचंद्र के प्रसिद्ध उपन्यास “देवदास” पर इसी नाम से बनी फिल्म का वह दृश्य तो आपको याद ही होगा, जिसमें पारो के चरित्र में एश्वर्या राय ने तवायफ चन्द्रमुखी का किरदार निभा रही माधुरी दीक्षित के कोठे पर जाती है और माँ दुर्गा की प्रतिमा के निर्माण के लिए कोठे की मिटटी मांगती है। देवदास फिल्म में चन्द्रमुखी का एक डायलोग है “हमारे घर से जब तक मिटटी नहीं जाएगी, तब तक माँ दुर्गा की मूरत नहीं बन सकती।” यह सिर्फ सिनेमा का डायलोग नहीं है। बल्कि सदियों से ऐसी परम्परा रही है की देवी की प्रतिमा की निर्माण में “रेड लाईट एरिया” से मिटटी लाकर मिलाई जाती रही है। लेकिन अब बदलते वक्त के साथ यह परम्परा भी टूटने लगी है। धनबाद के जाने माने शिल्पकार दुलाल पाल की माने तो पहले शिल्पकारो के पूर्वज रेड लाईट एरिया से मिटटी लाकर उसे प्रतिमा निर्माण की मिटटी में मिलाते थे। इसके बाद ही प्रतिमा का निर्माण शुरू होता था। यह सब उस दौर में मुमकिन हो पता था जब राजा-रजवाडो के यहाँ इक्का-दुक्का दुर्गा पूजा का आयोजन होता था। अब काफी संख्या में प्रतिमा निर्माण करना पड़ता है। इस वजह से अब उस परम्परा और संस्कृति को अपनाना मुमकिन नहीं रह गया।

 

 

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परम्परा के एक अध्याय के समापन के साथ ही दुसरे अध्याय का भी आगाज हुवा है। परम्परा से हटकर कोयलांचल के शिल्पकार मोक्षदायिनी माँ गंगा की मिटटी से देवी दुर्गा की मूरत गढ़ते है। शिल्पकार दुलाल पाल कहते है की पश्चिम बंगाल से गंगा की मिटटी मंगाई जाती है। पोली, बेले, और एटेल मिटटी से माँ की प्रतिमा तैयार की जाती है। पोली मिटटी से कंकड़ छान कर उससे ऊँगली और मुख तैयार किया जाता है। एटेल से प्रतिमा को पौलिस किया जाता है। जिसके लिए धान की बाली उपयोग में लाया जाता है।

 

 

शिल्पकार दुलाल पाल

 

 

शिल्पकारो पर काम का बोझ बढ़ने से हमारी परम्परा इतनी प्रभावित हुई है की रथ यात्रा से ही प्रतिमा निर्माण का कार्य हो जाना चाहिए जो अब संभव नहीं हो पाता। इतना ही नहीं महालया पर चक्षुदान की परम्परा भी निभाना शिल्पकारो के लिए अब मुश्किल हो गया है। यह बात खुद शिल्पकार दुलाल पाल ही कहते है। शिल्पकार की माने तो ऐसी मान्यता है की चक्षुदान यानि देवी के नयन को आकार देने के बाद मिटटी की मूरत में अदृश्य शक्तिया आ जाती है। शिल्पकार भी मातृत्व के रूप के दर्शन करते है। यही वजह है की चक्षुदान के बाद प्रतिमाओ में पैर लगाना बिलकुल वर्जित कर दिया जाता है।

 

 

माँ की प्रतिमा बनाने वाले शिल्पकार भी मानते है की काम का बोझ बढ़ने और संस्कृति में तेजी से बदलाव आने के कारन शादियों से चली आ रही परम्परा का निर्वाह कर पाना अब प्रायोगिक तौर पर संभव नहीं रह गया है। कम समय में अधिक कार्य का बोझ होता है। पूजा आयोजको की संख्या बढती जा रही है। कुल मिलकर समय के साथ-साथ प्रतिमा निर्माण के क्षेत्र में भी बदलाव आया है।

 

 

 

 

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