“दिल के धनी” राजीव रंजन की जीवन भी संघर्षों से भरी रही (पार्ट-07)

AJ डेस्क: कोयलांचल का एक चर्चित घराना “सिंह मेंशन” की बुनियाद ही मानो संघर्ष पर रखी गयी थी। सूर्यदेव सिंह ने काफी उतार चढ़ाव देखते हुए मुकाम हासिल किया था और झरिया वासियों खासकर मजदूरों के दिल में स्थान बनाया था। सूर्यदेव सिंह के निधन के बाद घर का ज्येष्ठ पुत्र होने के नाते राजीव रंजन के कंधे पर विरासत को सम्भालते हुए उसे आगे बढ़ाने की जिम्मेवारी आ गयी थी।

 

 

राजीव रंजन को जानने वाले बताते हैं कि रंजन को एक साथ कई मोर्चा पर संघर्ष करना पड़ा था। पिता सूर्यदेव सिंह के बनाए पथ पर चलते हुए झरिया वासियों की रक्षा करनी ही थी, मजदूर वर्ग का भी ख्याल रखना था। साथ ही लड़खड़ा रहे परिवार को भी साथ लेकर चलना था। अपने पिता से विरासत में मिली “साहस” एवम “दरियादिली” ने रंजन को नैतिक स्पोट किया और वह अपने कर्तव्य का निर्वाह करता गया। बहुत ही कम समय में रंजन युवाओं और छात्रों के दिल पर राज करने लगा था। दूसरी ओर सूर्यदेव सिंह जिस तरह गरीब गुरबा के सहयोग के लिए ततपर रहते थे। रंजन भी उन्ही के पदचिन्हों पर चल पड़ा था। जानने वाले कहते हैं कि कोयलांचल में एक नही कई ऐसा परिवार है, जिसे गम्भीर अवस्था में राजीव रंजन ने खुलकर सहयोग किया।

 

 

 

 

वर्ष 2001 में राजीव रंजन ने बड़े ही तामझाम के साथ भाजपा की सदस्यता ग्रहण करते हुए राजनीति में कदम रखा था। छात्रों और युवाओं का नब्ज पकड़ते हुए उन्होंने “छात्र युवा संघ” का गठन कर अपनी शक्ति बढ़ाई। वर्ष 2003 में राजीव रंजन के नेतृत्व में निकाली गयी “चेतावनी रैली” को वर्षों तक झरिया के लोग भूल नही पाए थे। लेकिन राजीव रंजन की बढ़ रही लोकप्रियता से मेंशन के भीतर ही नई राजनीति की नींव पड़ गयी थी। 3 अक्टूबर 2003 राजीव रंजन के लिए काला दिवस के रूप में आया। इसी दिन प्रमोद सिंह की हत्या हुई। आरोप सिंह मेंशन की ओर था। राजीव रंजन अपना पक्ष रखने कोलकत्ता के लिए रवाना तो हुए लेकिन आज तक वह वापस नही लौटे।

 

 

 

 

सूर्यदेव सिंह के निधन के बाद राजीव रंजन ने कड़ी मेहनत और संघर्ष कर लड़खड़ा रहे सिंह मेंशन को संभालने का प्रयास किया था लेकिन विधाता को कुछ और ही मंजूर था। राजीव रंजन लापता हो गए और एक बार फिर सिंह मेंशन पर संकट के बादल छा गए थे।

 

 

 

 

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