नहीं रहे राजनीति के “संत” कामरेड राय दा, “लाल झंडा” राजनीति की एक युग का अंत

AJ डेस्क: धनबाद कोयलांचल में “लाल झंडा” की राजनीति का एक युग का आज अंत हो गया। राजनीति के संत अरुण कुमार राय उर्फ़ ए के राय उर्फ़ राय दा अब सशरीर हमलोगों के बीच नहीं रहे। 60 के दशक में इंजीनियर से राजनीति में आए राय दा मजदूरों के नेता बने ही, पृथक झारखण्ड राज्य के आंदोलन का जनक भी रहे। लम्बे समय से बीमारी से जूझ रहे राय दा ने आज केंद्रीय अस्पताल धनबाद में अंतिम सांस ली।

 

 

हमारे फेसबुक पेज से जुड़ने के लिए अभी अपने फेसबुक पेज के ऊपर SEARCH में जाकर TYPE करें analjyoti.com और LIKE के बटन को दबाए…

 

 

कामरेड नेता ए. के. राय पिछले 15 दिनों से बीमार चल रहे थे। उन्हें धनबाद स्थित बीसीसीएल के सेन्ट्रल हॉस्पिटल के सीसीयू में इलाज के लिए रखा गया था। उनका इलाज कर रहे डॉक्टरों की माने तो पिछले चार दिनों से उनके शरीर के कई अंगों ने काम करना बंद कर दिया था। डॉक्टरों ने बताया कि शनिवार को उन्हें साँस लेने में काफी दिक्कतें हो रही थी। जिसके बाद से डॉक्टर उन्हें ऑक्सीजन दे रहे थें। उनकी नाजुक स्थिति को देखते हुए कल से ही उनके समर्थकों का अस्पताल परिसर में आना-जाना लगा हुआ था। वहीं आज उनके देहांत की खबर से सिर्फ कोयलांचल ही नहीं बल्कि पूरे राजनीतिक जगत में शोक की लहर दौड़ गई है।

 

 

झारखण्ड के मुख्यमंत्री रघुवर दास ने भी उनके मौत पर दुख प्रकट किया है। उन्होंने लिखा है- ‘पूर्व सांसद एके राय जी को भावभीनी श्रद्धांजलि। एके राय जी का निधन झारखण्ड की राजनीति में अपूर्णीय क्षति है। उनका अंतिम संस्कार राजकीय सम्मान के साथ किया जाएगा।’

 

 

 

 

चलिए जानते है सियासत के संत राय दा के बारे में-

काले हीरे की नगरी धनबाद से तीन बार सांसद और तीन बार विधायक रह चुके ए के राय अब राय दा के नाम से ही जाने जाते थे। झोपड़ीनुमा कार्यालय के एक कमरे में जीवन गुजारने वाले राय दा पूर्व सांसद को मिलने वाली कोई भी सुविधा नहीं लेते बल्कि पेंशन की राशि भी राष्ट्रपति कोष में ही जमा करा देते। सादगी और त्याग भरा जीवन ने ही राय दा को सियासत का संत बना दिया था। इंजीनियर से कॉमरेड ए के राय बने राय दा के पास अपना कहने को न तो घर था और न ही गाड़ी। उनके पास था तो बस कैडर की फ़ौज और बैंक एकाउंट में 26 हजार रूपये।

 

 

धनबाद के सिंदरी में वर्ष 1961 में नौकरी करने आये इंजीनियर ए के राय काले हीरे की नगरी धनबाद के राजनितिक सरजमीं पर कोहिनूर बनकर उभरेंगे यह कौन जानता था। अपने कैडर को ही अपनी सम्पति मानने वाले राय दा का जीवन जितना ही सादगी भरा रहा, उनका राजनैतिक जीवन उतना ही संघर्षपूर्ण रहा। 15 जून 1935 को एक छोटे से कस्बे “राजशाही” (अब बांगलदेश) में जन्मे ए के राय के माता-पिता भी स्वंत्रतता सेनानी थे। वर्ष 1959 में कोलकाता विश्वविद्यालय से एम. एस. सी. टेक्नोलोजी करने के बाद वह केमिकल इंजीनियर बने और वर्ष 1960 में जर्मन विश्वविद्यालय से उन्होंने जर्मनी भाषा की पढाई की। वर्ष 1961 में धनबाद के सिंदरी स्थित पी. डी. आई. एल. कम्पनी में नौकरी करने आए राय दा एक छोटी सी घटना को लेकर किसान और मजदूरो की लड़ाई में कूद पड़े। बस क्या था इंजीनियर ए के राय बन बैठे कॉमरेड राय दा। वर्ष 1967 में सिंदरी विधानसभा क्षेत्र से पहली बार राय दा चुनावी दंगल में कूद पड़े और उन्होंने जीत भी हासिल की, और यहीं से उनका राजनैतिक सफर शुरू हो गया। राय दा सिंदरी विधान सभा क्षेत्र से लगातार तीन बार विधायक बने। वर्ष 1974 में जय प्रकाश नारायण के आह्वान पर बिहार विधानसभा से इस्तीफा देने वाले ए के राय पहले विधायक थे।

 

 

 

 

धनबाद कोयलांचल में कभी किसान, मजदूरों के हक़ की लड़ाई तो कभी साहूकार, जमींदार और सूदखोरों के खिलाफ जंग का एलान। कोलियरियों पर दबदबा रखने वाले माफियाओं के खिलाफ भी राय दा ने लम्बी लड़ाई लड़ी। शिबू सोरेन और बिनोद बिहारी महतो के साथ मिलकर राय दा ने झारखंड मुक्ति मोर्चा का गठन किया था और अलग राज्य का सपना देखा था। गुजरते वक्त में ए के राय और बिनोद बिहारी महतो साथ रह गए थे लेकिन शिबू सोरेन की राह जुदा हो गई। वर्ष 1977 में जेल में रहते हुए राय दा ने पहली बार लोकसभा का चुनाव लड़ा और जीत हासिल की। वर्ष 1980 में दूसरी बार तो वर्ष 1989 में तीसरी बार वह धनबाद लोकसभा सीट से चुनाव जीतने में सफल रहे। इस बीच राय दा ने जनवादी किसान संग्राम समिति का गठन किया। यही नहीं कोयला मजदूरों के हक़ की लड़ाई लड़ने के लिए राय दा ने बिहार कोलियरी कामगार यूनियन का भी गठन किया। मार्क्सवादी समन्वय समिति (मासस) की स्थापना कर राय दा ने अपनी राजनैतिक मंच तैयार की। राय दा के आदर्शो से प्रभावित उनके अनेक समर्थकों ने भी आजीवन कुवारां रहते हुए जनसेवा का बीड़ा उठाया है। राय समर्थकों की माने तो आज देश को राय दा के राजनैतिक विचारधारा वाले नेताओं की जरूरत है।

 

 

सियासत के संत राय दा ने मासस के झोपड़ीनुमा दो कमरे के कार्यालय में अपना जीवन गुजार दिया। अपने कमरे और कपड़े की सफाई भी वह खुद किया करते थे। चुनावी सभा हो या मजदूरों की सभा राय दा अपने ही किसी कार्यकर्ता के दोपहिया वाहन पर बैठकर चल दिया करते थे। सादगी के प्रतीक राय दा ने अपने कमरे में बिजली का कनेक्सन नहीं रखा था। चटाई पर सोया करते थे। फ्रिज की जगह पर मटके का इस्तेमाल करते थे।

 

 

पिछले कुछ वर्षो से राय दा अस्वस्थ चल रहे थे। उनके समर्थक राय दा को अपने पास रख उनकी सेवा कर रहे थे। शरीर से अस्वस्थ राय दा अंतिम समय तक देश दुनिया की खबरों के साथ जुड़े रहते थे। समाचार-पत्रों में छपे विशेष खबरों का कतरन वह नियमित रूप से फाइल कराते थे। उनके समर्थक बताते हैं कि अलग राज्य का सपना देखने वाले राय दा यहाँ की सरकार से खुश नहीं थे।

 

 

पूरे देश में “भ्रष्टाचार” गम्भीर मुद्दा बना हुआ है। सभी प्रमुख राजनितिक पार्टियों के कद्दावर नेता भ्रष्टाचार पर बयानों का बाण चलाने से नहीं चुक रहे। आज देश की राजनीति में सक्रिय नेताओं को एक बार “राय दा” के जीवन शैली, सादगी और राजनीतिक सोच से अवश्य रु-ब-रु होना चाहिए।

 

 

Digital-marketing-and-website-devolping

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

Article पसंद आया तो इसे अभी शेयर करें!

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *

Translate »