पुण्य तिथि पर विशेष: कोई काम छोटा नहीं, कर्म को मूल मंत्र बना बुलंदी पर पहुंचे स्व सूर्यदेव सिंह

AJ डेस्क: चौदह वर्ष की आयु में एक बालक रोजगार की तलाश में ग्रामीण परिवेश से निकल कोयलांचल आता है और मात्र एक दशक में ही वह जन जन का प्रिय एवम मजदूरों का मसीहा बन बैठता है। यह साधारण बालक नहीं था। कोयलांचल से लेकर दिल्ली के राजनैतिक गलियारे तक इस शख्सियत की धमस बन चुकी थी। हम यहां बात कर रहे हैं विधायक जी, पहलवान साहब, बाबू साहब और मजदूरों के मसीहा जैसे नामों से पहचान बनाने वाले बाबू सूर्यदेव सिंह की।

 

 

बाबू सूर्यदेव सिंह के परिवार के सदस्यों और उनको जानने वालों से की गयी बात के आधार पर ही यह रिपोर्ट बनाया गया है। स्व सूर्यदेव सिंह की जीवनी एक रिपोर्ट में सिमट देना सम्भव नही है। उनको जानने वालों से चर्चा छेड़ देने पर विधायक जी से जुड़ी इतनी कहानियां सामने आ जाती है कि एक एक व्यक्ति के अनुभव पर एक एक पुस्तक ही छप जाए। फिर भी यहां कोशिश की जा रही है कि संक्षेप में ही विधायक जी से जुड़ी महत्वपूर्ण बातों से आपको भी अवगत करा दिया जाए।

 

 

 

 

साठ के दशक में उत्तर प्रदेश के बलिया जिला के गोनिया छपरा गांव से चौदह वर्ष की आयु में सूर्यदेव सिंह झरिया कोयलांचल में रोजगार की तलाश में आए थे। कर्मठ, संघर्ष शील और ईमानदार चरित्र सूर्यदेव सिंह के लिए काफी सहायक सिद्ध हुआ। उन्होंने किसी काम को छोटा नही समझा। एक एक दिन में कई कई पाली में अलग अलग स्थानों पर वह काम करते रहे। संघर्ष तो उनके जीवन का मुख्य हिस्सा बन चुका था। किराना दुकान पर काम, किसी के यहां पानी भर देना, ट्रेन में चना चटपटी बेचना। तातपर्य यह कि हर काम को काम समझे। संघर्ष करते रहे। इरादा और जुनून पक्का था कि मंजिल हासिल करना है। पीछे मुड़कर नही देखना है। इसमें उनके कुछ रिश्तेदारों ने सहयोग भी किया था।

 

 

 

 

ईमानदार छवि और मेहनती होने के कारण सूर्यदेव सिंह के लिए अपने आप रास्ता खुलने लगा। उन्होंने दिन रात हाड़ तोड़ मेहनत कर कुछ पैसा जमा किए और उससे अपने लिए धौड़ा बनाया। चानक पर नौकरी भी की। पहलवानी का शौख था। एक परिचित ने दुधारू भैंस दे दिया। यहां से उनका पहलवानी का दौर भी शुरू हो गया। सूर्यदेव सिंह के कान तक यदि किसी मजदूर की समस्या पहुंच गयी तो वह सबसे पहले उसके निबटारा में लग जाते थे। कोयला खदान में कोई दुर्घटना हो जाए तो अपनी जान की परवाह किये बगैर वह खदान में घुस जाते थे और जख्मी को कंधा पर ही लाद कर बाहर लेते आते थे।

 

 

 

 

रोजगार की तलाश में धनबाद आए सूर्यदेव सिंह के लिए भगवान को कुछ और ही मंजूर था। तरह वर्षों में ही यह शख्श इतना लोकप्रिय हो चुका था कि वर्ष 1977 में झरिया विधान सभा से चुनावी मैदान में ताल ठोक दिया और विजयी भी हुए। फिर तो वह ताजिंदगी विधायक ही रहे। सिलसिला यहीं नही थम जाता है। इनकी फितरत में शामिल था कि आगे बढ़ते जाओ। झरिया कोयलांचल से राजधानी पटना फिर पटना से देश की राजधानी दिल्ली के राजनैतिक गलियारे में सूर्यदेव सिंह ने मजबूत उपस्थिति दर्ज करा दिया था। पूर्व प्रधानमंत्री चंद्रशेखर के साथ सूर्यदेव सिंह के प्रगाढ़ सम्बन्ध को सभी जानते हैं।

 

 

जिंदगी में किसी से कहीं भी हार नही मानने वाले सूर्यदेव सिंह भी अंततः जिंदगी से हार गए। इस ‘सत्य’ से कोई बचा भी नही है। सूर्यदेव सिंह आरा से लोक सभा का चुनाव लड़े थे। उसके बाद वह अपनी जन्म स्थली गोनिया छपरा चले गए थे। वहां से उनके भाई विक्रमा सिंह चुनाव लड़ रहे थे। 15 जून 1991के दिन हृदयगति रुक जाने से मजदूरों के मसीहा सभी को छोड़ कर चल बसे थे।

 

 

 

 

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