“जाने कहाँ गए वो दिन” न भोपूं, न जीतेगा भाई— गगन भेदी नारा, सुनने को मिल रहा चुनाव में

AJ डेस्क: ‘जाने कहां गए वो दिन…’ राजकपूर अभिनीत फिल्म का ये गाना आज सुबह से ही गुनगुनाने की इच्छा हो रही थी तो सोचा इसमें आप को भी शामिल कर लूं। दरअसल ये इच्छा चुनावी व्यवस्था में आए बदलाव के असर से उभरी स्थिति को देख जगा है। हर बार की तरह इस 17 वें लोकसभा चुनाव में भी लोकतंत्र का महायज्ञ किया जा रहा है। इसमें राजनीति की तमाम आहुतियां भी दी जा रही है लेकिन लोकतंत्र के इस महापर्व के मंत्रों की वो गूंज जो जनता के कानों में गूंजा करती थी आज कही खो सी गई है। आधुनिकता की आई बाढ़ में डूब चुकी है।

 

 

एक जमाने में प्रत्याशियों के चुनावी प्रचार-प्रसार का शोरगुल कई दिनों तक दिन भर थमने का नाम नहीं लेता था। रिक्सा, ऑटो रिक्सा आदि में लगे लाउडस्पीकरों से विभिन्न राजनीतिक पार्टियों के चुनाव प्रचार, गली-कूचों, चौक-चौराहों, भवनों आदि पर लगे पार्टी के पोस्टर बैनर और झंडे से पूरा शहर पटा रहता था। गांव-गांव, चौक-चैराहो पर प्रत्याशी लोगों के सामने अपनी बात रखते थे। लेकिन आधुनिकता इस दौर में अब यह सब विलुप्त से हो गए है।

 

 

ऐसा नहीं है कि इस जलती और चुभती गर्मी में नेताजी क्षेत्र में जनसंपर्क करने को नहीं निकल रहें, लेकिन उनका यह जनसंपर्क जनता में कम क्षेत्र के कुछ चुनिंदा समर्थकों के बीच ज्यादा ही सिमट कर रह गया है। पहले के अपेक्षा चुनाव आयोग आज ज्यादा सख्त है, बावजूद इसके आदर्श चुनाव संहिता की धज्जियां आज ज्यादा उड़ाई जा रही है।

 

 

हालांकि लोगों को चुनावी शोरगुल से राहत भी मिली है। मतदाताओं में मतदान के लिए जागरूकता भी बढ़ी है। जो लोकतंत्र के लिए शुभ संदेश है। लेकिन चुनाव प्रचार के आधुनिकीकरण ने समाज से लोकतंत्र के सबसे बड़े पर्व का उत्साह भी छीन लिया है।

 

 

 

 

 

 

 

 

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